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महाभारत के इस युध्य के अद्भुत रहस्य को जानकर आप दंग हो जायेंगे

महाभारत के इस युध्य के अद्भुत रहस्य को जानकर आप दंग हो जायेंगे

प्राचीन भारत का इतिहास है. महाभारत श्री कृष्ण द्वैपायन नाम के वेद व्यास ने यह ग्रंथ श्री गणेश जी की मदद से लिया गया था. जीवन के रहस्यों से भरे इस ग्रंथ को पंचम वेद कहा गया है. यह ग्रंथ हमारे देश के मन प्राण में बसा हुआ है. यह भारत की राष्ट्रीय गाथा में है. इस ग्रंथ में तत्कालीन भारत का समग्र थी. यह ग्रंथ अपने आदर्श स्त्री पुरुष के चरित्रों से हमारे देश के जनजीवन को प्रभावित करता है. इसमें सैकड़ों पात्रों, स्थानों, घटनाओं तथा विशेषताओं का वर्णन है.

महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा यह विद्या नहीं जानता था

महाभारत के युद्ध में जब अश्वत्थामा ने धोखे से पांडव पुत्र का वध कर दिया. तब पांडव भगवान श्री कृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हुए, महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंच गए, तो अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र से पांडवों पर वार किया  देख अर्जुन ने भी अपना ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल किया. महर्षि वेदव्यास ने दोनों स्तरों को टकराने से रोक लिया और अश्वत्थामा और अर्जुन से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र वापस मांगे तब अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा यह विद्या नहीं जानता था, इसलिए उसने अपने शस्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी के गर्भ की ओर कर दी यह देख

महाभारत के यह रहस्य

महाभारत के अनुसार जब युद्ध समाप्त हुआ, तो माता कुंती ने पांडवों के पास जाकर उन्हें यह रहस्य बताएं, कि कारण उनका भाई था. सभी पांडव इस बात को सुनकर दुखी हुए. युधिष्ठिर ने विधि विधान पूर्णांक कर्ण का अंतिम संस्कार किया. उसके बाद माता कुंती की तरफ गए, जिसके बाद उन्होंने माता कुंती को श्राप दे दिया, कि आज से कोई भी स्त्री किसी भी गोपनीय बात का रहस्य नहीं छुपा पाएगी.

क्यों पड़ा श्री कृष्ण  का नाम कृष्ण द्वैपायन

वेद व्यास ने लिखी महाभारत ज्यादातर लोग यह जानते हैं, कि महाभारत को वेद व्यास ने लिखा है. लेकिन यह अधूरा सच है. वेदव्यास कोई नाम नहीं बल्कि एक उपाधि थी. जो वेदों का ज्ञान रखने वाले लोगों को दी जाती थी. कृष्ण द्वैपायन से पहले 27 वेदव्यास हो चुके थे. जबकि वे खुद 28 में वेदव्यास थे, उनका नाम कृष्ण द्वैपायन इसलिए रखा गया क्योंकि उनका रंग सावला था और वह एक द्वीप पर जन्मे थे अंग्रेजों में संपूर्ण महाभारत दोबारा अनुदित की गई थी पहला अनुवाद अट्ठारह 8398 के बीच की सरी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मन्मथ नाथ मंत्र नाथ दत्त ने 18 पंचानवे

 

 

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