250 रूपए से शुरू किया सफर ,आज है 500 करोड़ का कारोबार उस व्यक्ति के बारे में आज हम आपको ऐसी कहानी सुनाएंगे जैसे किसी फिल्म की स्टोरी हो। ऐसा सिर्फ फिल्मो में होता देखा है। सपने देखने का हक़ सभी को होता है। वैसे ही इन्होने भी सपने देखे थे इंजीनिरिंग करने के परन्तु आर्थिक हालातो को देखते हुए इन्हे हार माननी पड़ी।
पेट भरने के लिए छोटे मोटे काम किये अपने सपनो से हार नहीं मानी। जब भी उन्होने कंप्यूटर संस्थान में दाखिला लिया तो उन्हें अंग्रेज़ी कम बोलने के कारण नाकामी मिली। फिर उन्होंने भरपूर मेहनत की। इन्होने वो कर दिखाया जो उन्होंने सपने में सोचा था। आज की कहानी एक किसान पुत्र की है कि वो एक शून्य से शिखर तक पहुंचे है। कहानी दिग्गज आईटी कारोबारी अमित कुमार दास की है।
ऐसे पहुंचे मंज़िल तक-
अमित बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज कस्बे में एक बेहद ही पिछड़े गांव में एक किसान के घर पैदा लिए अमित ने परिवार में एक आम लड़के की तरह बड़े होकर खेती में हाथ बंटाया करते थे। किसी तरह सरकारी स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पटना के एएन कॉलेज से साइंस से इंटर किया। बचपन से ही बड़े सपने लिए अमित खेती से दूर पढ़ाई कर इंजीनियर बनना चाहते थे।
घर की बुरी आर्थिक हालात ने अमित के सपनों पर पानी फेर दिया था। अमित ने हार नहीं मानी और कंप्यूटर से संबंधित कोर्स करने का निर्णय लिया। परिवार पर ज्यादा बोझ ना डालते हुए उन्होंने 250 रुपए लेकर घर से निकले पड़े। आम लोगों की तरह बड़े-बड़े सपने सजाये अमित ने देश की राजधानी दिल्ली का रुख किया।
जेब में पड़े 250 रुपये, अनजान शहर की महंगाई के सामने ज्यादा दिन नहीं टिक सका और फिर उसे जो जून की रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। इस दौरान अमित ने किसी तरह पार्टटाइम ट्यूशंस कर खुद का गुजारा किया।
कुछ पैसे कमाने के बाद अमित ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लेकर बीए की पढ़ाई शुरू कर दी। पढ़ाई और ट्यूशंस दोनों साथ-साथ चलने लगे। इसी दौरान उन्हें कंप्यूटर सीखने की सूझी और उन्होंने दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर में एडमिशन लेने पहुंचे। सेंटर पर रिसेप्शनिस्ट ने उनसे अंग्रेजी में सवाल पूछे लेकिन वो उसका जवाब नहीं दे पाए। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया।अमित को बेहद दुःख हुआ और उसनें निश्चय किया कि वह अंग्रेजी सीख कर उसमें महारथ हासिल करेंगे। उन्होंने बिना देर किए तीन महीने का इंगलिश स्पीकिंग कोर्स ज्वॉइन कर लिया। तीन महीने में ही अमित अच्छी अंग्रेज़ी बोलने लगे।
उसी कोचिंग में दाखिला हेतु पहुँचे और 6 महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया। अमित की इस उपलब्धि को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन साल के लिए प्रोग्रामर की नौकरी ऑफर की।अमित के अच्छे प्रदर्शन की बदौलत इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया।
अमित को सिर्फ 500 रुपये प्रति माह की सैलरी मिलती थी लेकिन उन्होंने इसकी परवाह किये बगैर अच्छे से काम को सीखा और तजुर्बे हासिल किये। कुछ साल काम करने के बाद अमित को इंस्टीट्यूट से एक प्रोजेक्ट के लिए इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इनकार कर दिया।कुछ दिनों तक कंपनी चलाने के बाद अमित ने इआरसिस नामक एक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उन्हें ऑस्ट्रेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला। इस अवसर से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला किया
कंपनी स्थापित की-
आइसॉफ्ट सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी एक मल्टीनेशनल कंपनी बन गई।आज इस कंपनी के बैनर तले हजारों कर्मचारी दुनिया भर में सैकड़ों क्लाइंट्स के लिए काम कर रहें हैं। इतना ही नहीं लगभग 500 करोड़ रुपए के सालाना टर्नओवर के साथ इस कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई, दिल्ली और पटना में भी स्थित हैं।
अमित अपने संघर्ष के दिनों को आज भी याद रखतें हैं। गरीबी की वजह उनका इंजिनियर बनने का सपना अधूरा रह गया था, इसलिए वो चाहतें हैं कि किसी और गरीब को सपना अधूरा नहीं रहे। इसी कड़ी में साल 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने फारबिसगंज में उनके नाम पर 150 करोड़ की लागत में एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोला। इतना ही नहीं आने वाले वक़्त में वो बिहार में एक विश्वस्तरीय अस्पताल की भी आधारशिला रखेंगें।
उनके जीवन के इस सफर से सचमुच सीख मिलती है। उनकी ये सफलता काबिल के तारीफ है।