सुदामा और कृष्ण की जोड़ी दोस्ती की मिशाल है। कृष्ण और सुदामा आचार्य संदीपन के आश्रम में साथ-साथ पढ़ते थे। सुदामा सादगी से परिपूर्ण थे। सुदामा का यह व्यवहार ने कृष्ण को प्रभावित किया। फिर दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए। शिक्षा प्राप्त करने के बाद दोनों अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गए। कृष्ण ने द्वारिका नगरी की स्थापना की और राजा बन गए। सुदामा की आर्थिक स्थिति ख़राब होती चली गयी। सुदामा की पत्नी को पता था कि कृष्ण सुदामा के बाल सखा हैं, जिस कारण वो हमेशा सुदामा को कृष्ण से सहायता मांगने को कहती थी।
उनके कहने पर भी सुदामा नहीं मानते थे। जब हालत ज्यादा ख़राब हो गयी थी तब वह उनके महल पहुंचे सहायता लेने के लिए परन्तु द्वारपालों ने उनकी बेईज्जती कर वहां से भगा दिया था जब कृष्ण के पास खबर पहुंची कि नाम सुदामा और कृष्ण को अपना सखा बता रहे हैं, तब कृष्ण नंगे पैर दौड़े आये और गले लगे अपने आंसुओ से उनके पैर धुले।
कृष्ण ने सुदामा का बहुत आवभगत किया और धन -धान्य से लाद दिया और एक लोक का अधिपति बना दिया। कृष्ण की आँखों से ख़ुशी के आंसू निकल रहे थे। कृष्ण और सुदामा की दोस्ती एक मिशाल है। वो मैत्री के देवता थे।
अर्जुन के साथ भी कृष्ण की दोस्ती अच्छी थी अर्जुन को भी भाइयों से भी ज्यादा कृष्ण की दोस्ती पर विश्वास था। कर्ण ने अपने दोस्त के लिए जीवन तक बलिदान कर दिया। कर्ण महान योद्धा थे और गजब के धनुर्धर थे। कर्ण का पालन-पोषण एक सूत ने किया। तब से उनकी पहचान सूतपुत्र के रूप में थी। कर्ण का हाथ दुर्योधन ने थामा और एक राज्य का राजा बना दिया
कर्ण भी जिंदगी भर भूल नहीं पाए क्योकि दुर्योधन ने कर्ण को बड़ा सम्मान दिया। कई बार कौरवों की बातें उन्हें नागवार गुजरतीं, लेकिन विरोध जताने के बाद भी वह वही करते जो दुर्योधन चाहते थे, क्योकि दुर्योधन के साथ उन्होंने हर सही-गलत में साथ दिया और उन्हें यह भी मालूम था कि पांडवों के खिलाफ युद्ध किया वह कुंती के ही पुत्र हैं।
कृष्ण ने इस बात का उजागर किया और यह जानने के बाद भी कर्ण ने कौरवों का साथ छोड़ने से इंकार कर दिया। दुर्योधन की मित्रता से बड़ा उनके लिए कुछ नहीं था। उनको यह बात का ज्ञान था कि इस युद्ध में जान का भी बलिदान देना पड़ेगा। दुर्योधन का साथ उन्होंने अंतिम सांस तक दिया।
पुराणों में एक मित्रता को पवित्र माना गया है और वो है राम और सुग्रीव की मित्रता। सीता हरण के बाद राम और लक्ष्मण की मुलाकात सुग्रीव से हुई थी और यह मित्रता भी एक मिशाल है। सुग्रीव के भाई ने उनका राजपाट छीन लिया और राम ने बाली की हत्या कर सुग्रीव को उनका राजपाट सब दिला दिया। सीता की खोज के लिए अपनी वानर सेना और हनुमान को लगा दिया था और सुग्रीव की सेना भी लगी रही।